धर्मनिरपेक्षता : राज्य के नैतिक विकास का मार्ग या राजनैतिक हथियार


भारत में संविधान निर्माण पर जब विस्तृत चर्चा हुई तब उसमें सबसे बड़ा विषय था - धर्म । संविधान निर्माण के समय यह काफी संवेदनशील विषय था क्योंकि धर्म के नाम पर जो विभाजन हुआ उसके परिणाम वीभत्स थे । आज पुनः जब धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा उठता है तब एक वर्ग यह कहता है कि यह केवल राजनैतिक हथियार है और एक वर्ग यह कहता है कि यह देश की एकता व अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए एक महान विचारधारा है ।




धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक अर्थ है राष्ट्र का कोई धर्म नहीं होगा, यही सत्य भी है । राष्ट्र का कोई धर्म नहीं होता ,धर्म व्यक्तिगत होता है । परिस्थितियों के अनुसार व्यक्ति द्वारा किए गए कर्म ही उसका धर्म निश्चित करते हैं । धर्म सही अर्थ में व्यक्तिगत विषय है । यदि धर्म की सही व्याख्या को माना जाए तो राष्ट्र धर्म और धर्मनिरपेक्षतावाद का मुद्दा ही नहीं रहेगा । परन्तु भारत में धर्म को राजनीतिक रूप देकर धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा को लोगों को भ्रमित करने के लिए किया जाता रहा है । उदाहरण के तौर पर हिन्दू शब्द 12वी - 14वी शताब्दी तक भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त होता था । जो व्यक्ति सिंधु के पूर्व में निवास करता है वह हिन्दू है । 



17 वी - 19वी शताब्दी में हिंदू शब्द धर्म के परिपेक्ष्य में उपयोग किया जाने लगा और 20 वी - 21वी सदी में यह राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त होने लगा । शब्द एक है परन्तु समय के साथ साथ उसके परिप्रेक्ष्य बदलते गए । 


जब भारत में आज हर व्यक्ति अपने धर्म का महत्व समझेगा अथवा हर व्यक्ति को अपने धर्म का महत्व समझाया जाएगा तब ही धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा भारत के लिए कल्याणकारी होगी । हमें अपने स्वविवेक से धर्म के अर्थ को समझकर ,जो लोग धर्म अथवा धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा को राजनीतिक हथियार के रूप में देखते हैं ,उन्हें भारत के राजनीतिक परिदृश्य से हटाना होगा । अन्यथा 1947 में हुए विभाजन की त्रासदी भारत को पुनः झेलनी पड़ सकती है

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